पूर्णागिरि कथा ::.
एक बार कैलाश पर्वत पर विराजमान महादेव जी ने देवी पार्वती को उनके यह पूछने पर कि मैंने कैसे आपको प्राप्त किया है, तो भगवन शिव ने माता पारवती को उस प्राचीन इतिहास को सुनाया |
भगवान् शिव बोले -- हे देवी ! पूर्वजन्म मैं तुमने दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप मैं जन्म लिया था | तब तुम्हारा नाम सती था | तुमने ब्रह्माजी एवं नारद जी के कहने पर मुझसे विवाह के लिए घोर तप किया | मेरा तुम्हारे साथ विवाह हुआ | तुम मेरे साथ कैलाश धाम मैं रहने लगी | राजा दक्ष को तुम्हारा मेरे साथ विवाह करना पसंद नहीं था और इसी से उसने मुझे अपने यहाँ यज्ञ मैं नहीं बुलाया | उसको बहुत अहंकार हो गया था | समस्त देवताओं को सपरिवार बुलाया था लेकिन मुझे और सती (तुम्हे) को नहीं बुलाया | जिस समय आप गंधमादन पर्वत पर सखियों के साथ घूम रही थी तब देवताओं के परिवारों को अपने पिता द्वारा किये गए यज्ञ मैं भाग लेने जाते देखकर तुमने मुझसे चलने को कहा | मैंने बिना आमंत्रण जाने को मन किया और तुम्हे भी न जाने को कहा | लेकिन आपको यह बात नहीं सुहाई और तुम वहां रुद्रगणों के साथ पहुँच गयी | वहां पर मेरी निंदा सुनी तो क्रोध मैं भर तुमने यज्ञ कि अग्नि मैं अपने को होम कर डाला | मेरे गणों ने यज्ञ को बुरी तरह नष्ट कर दिया |
महर्षि भृगु ने आहुतियाँ दाल कर दैत्यों की सृष्टि की जिनका मेरे गणों से युद्ध हुआ | अंत मैं जब इन्द्रादि देवताओं के साथ वीरभद्र का युद्ध हुआ | श्री विष्णु ने युद्ध मैं दक्ष कि और से भाग लिया किन्तु अंत मैं उन्हें अपने लोक को वापिस लौटना पड़ा | यद्यपि देवताओं ने मुझसे माफ़ी मांग ली लेकिन मेरा क्रोध शांत नहीं हुआ | वीरभद्र ने दक्ष के सिर को काटकर नष्ट कर दिया लेकिन देवताओं की स्तुति पर उसके शरीर पर मैंने बकरे का सिर लगा कर उसे जीवित कर दिया था | उसने अपने किये पर बहुत पश्चाताप किया किन्तु सती के क्षत-विक्षत शरीर को देख कर मेरा क्रोध और भी अधिक बढ़ गया |
मैंने सती जी (तुम्हारे) शरीर को कंधे पर रख लिया और उसे लेकर एक मनुष्य कि भांति रोते - बिलखते हुए जंगल - पर्वत आदि समस्त लोकों मैं घूमने लगा | मेरी इस सांसारिक लीला से सारी सृष्टि के समस्त कार्य रुक गए तब श्री विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से एक-एक कर सती जी के (तुम्हारे) शरीर के अंग काट डाले | वो अंग गिरते रहे, मैं विक्षिप्त अवस्था मैं घूमता रहा | हे पारवती ! सती जी के अंग जहाँ-जहाँ भी गिरे, आज वहां पर शक्तिपीठ बन गए हैं |
फिर उन्होंने समस्त पीठों का वर्णन कर के पारवती जी को सुनाया | इसी तरह अन्नपूर्णा शिखर पर सती जी का नाभि अंग गिरा था जो पर्वत शिखर को भेदता हुआ शारदा नदी मैं समा गया | आज यहाँ वही सती जी का शक्तिपीठ इस रूप मैं अवस्थित है | इसी को पूर्णागिरी के नाम से जाना जाता है |
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